कविता:जज्बातो का तालाब...
जज्बात...
दिल में बडी सी उलझन,
जो छाइ हुई है,ए जज्बातो का समंदर बडा नशीला था।
हमने पाँव क्या रखा उफ्फ..हम तो उतरते गए,तो याद आया की जज्बातो के समंदर मैं उतरना भी जरूरी था।
क्या करे जनाब हम आपकी चाहत मैं बावरे हो गए हैं,आपकी शरारतें,
आपकी बातें,आपकी शरारते सर आँखो पर,
महोतरम् हमको यु न सताया करो,अपनी पल्के
संभालकर रखे,आपकी पल्को से अब डर सा लगने लगा है,अपने दिल की बात छुपाना ए तो बडी गलत बात है,बात बात से याद आया की एक दुजे को युँह छेडना भी जरूरी था।
याद है तुमको,जब पहली -बार,हमारी मुलाकात हुई थी,बातों के भवडंर मैं बीन बोले है,सब कुछ कह गए,
तेरा मेरा साथ युही बरकरार रहे,ए दुवा हमारी रबसे,तुमसे इस तरह जुदाई मिले ये दिन कभी न आए,
ए दिल की आदत जो हो गई है,ए जज्बातो का भवंडर मैं उतरनाभी जरूरी था।
एक दिन पागलकर के ही छोडेगा।
हम गीरते गीरते सवंल गए,ए जज्बात का पयगाम था,या आँखो का करिश्मा
कोई हमे समजाये?
आपके खय्यालो मैं
खो जाना हमें अच्छा लगता है,कोई आपका नाम लेता है,तो पराया भी
अपना सा लगता है,
पर क्या करे,केसे बताए,
शब्द न है,शायरो से शब्द
उधार जो लेने है,तेरे मेरे
दर्मिया,उफ्फ...ए
जज्बात का सिलसिला इस दिल को भा गया है,
तेरे बिना जीना अब सजा
सा लगने लगा है,
क्या करे,हम खुद को भी
भुल गए है,आपके प्यार मैं बे इन्तहा डुब ही गए हैं,बहुत सोचने के बाद याद आया जज्बातो मैं युही खुद को जलाना भी जरूरी था।
शैमी ओझा "लफ्ज़"
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